Tuesday, April 23, 2019

जज्बातों से ऐलाने जंग करना होगा


क्यों चिंतित हो सम्हलो प्यारी बह रही आंस क्यों आंखों से...
जीवन तो है अब बदल गया उन काले झंझावातों से...
तुम केवल श्रद्धा नहीं रही अब, तुम पियूष सी पावन हो.....
इस युग की मंगल आरति हो दुनिया की जेहन सुधारक हो....
तुम खुद समय की पालक हो सतचंडी तन तैयार करो....
मां दुर्गा काली बन जाओ इन असुरों का संघार करो...
देवो के और दानवों के युद्धों में सदा ही साथ दिया ....
जब जब ये दानव बरसे हैं, तुमने इनका सर्बनाश किया...
जब आज लगे धक्के कोई मत आंखों में आंसू लाओ...
फिर वही रूप तैयार करो सतचंडी काली बन जाओ....
अट्ठहास करके गरजो फिर सीने पर तन चढ़ जाओ,
टांगे फाड़ फेंक डालो और कलेजा खा जाओ....
अब आंस से भीगी चादर पर खैरात नहीं मरना होगा.....
तुमको अपने जज्बातों से ऐलाने जंग करना होगा...

Sunday, April 7, 2019

वो मुझे याद कर रही होगी


वो मुझे याद कर रही होगी
सूर्ख होंठों से गुन रही होगी, 
उसके अंतस में चल रही हलचल, 
उसके जिगरे में मच रही उमड़न, 
आंत ऐंठन मचा रही होगी,

वो मुझे याद कर रही होगी
सूर्ख होंठों से गुन रही होगी,  
जैसे घायल हुई कोई मछली 
बांण बींधी हुई कोई हिरणी 
झाड़ियों में फंसी हुई तितली 
दूर भटका हुआ कोई तीतर  
मुश्किलों में तड़प रही होगी 

वो मुझे याद कर रही होगी
सूखे होंठों से गुन रही होगी, 
प्यासी हिरणी सा हांफता चेहरा  
छोटे बच्चे सा कांपता चेहरा 
भींच कर मुट्ठियां दिवारों में 
मारकर सिसिकियां रूमालों में 
देखकर मुझको अपनी डीपी में. 
जैसे सारस चिघर रही होगी

वो मुझे याद कर रही होगी
सूखे होंठों से गुन रही होगी, 
जब तिमिर में बनी कोई छाया
पास उसके खड़ी कोई काया 
उससे बातें बना रही होगी 
भूखी प्यासी वो बस मेरी खातिर 
जानता हूं हिचक रही होगी

वो मुझे याद कर रही होगी
सूखे होंठों से गुन रही होगी, 
मौन सहसा सिसर रही होगी 
अबतो कितनी निढल गई होगी 
निराशेपन में ढ़ल गई होगी 
फिर भी जब भी वो मुझको पाएगी
जैसे बच्चा लिपट वो जाएगी 
जानता हूं मचल रही होगी 

वो मुझे याद कर रही होगी
सूर्ख होंठों से गुन रही होगी 

क्या लिख्खूं मैं

क्या लिख्खूं मैं टूटे दिल पर ये कलम न लिखने देती है
होंठ सिला सा जाता है, कुछ जीभ न कहने देती है 
इस घायल कातर प्रेमी का, सब हाल सूंघने निकले हैं 
इस सिया हरण के राघव का, सब मजा लूटने निकले हैं

जिनकी ओंछी औकात, नग्न मुख जीभ नपुंशक जारी है
जिनका शब्द समूह स्वयं, गाली सम अत्याचारी है 
उनके निकृष्ट छल छंदों का पूरा समाज आभारी है
उनका लहजा रावण सा है, व हरकत शूर्पणखा सी है
उनके भी पिता दुष्यंता हैं, व माता मीरा जी सी हैं

दुर्दांत दस्युता का पालक, पोषक ढ़ोंगी पाखण्डों का 
महिमामंडन निज खूबी का, बस तंज प्रेम संबंधों का 
मन दर्पण मेरा कहता है, था उत्सव यह बस मक्कारों का 
हर लहजा मेरा कहता है, है बदला यह उन प्रतिकारों का  

भीतर की तड़पन में हम, आग नहीं सुलगाते हैं 
जिस्म हलाली की जिद में, आबरू नहीं बिकवाते हैं 
दो दिन का यह जीवन है, हर क्षण अर्जन कर जीतें हैं  
चंद घड़ी यह चढ़ा जोश, मदहोश न होकर जीते हैं 
अस्मत नीलाम करा बैठे, आखिर तुम क्या जानोगे 
समय बहुत है, लगता है, घर जानोगे तब मानोगे 

Tuesday, February 12, 2019

हे चांद चकोरी चंद मुखी



इस प्रणय दिवस पर,
प्रणय निवेदन प्राण प्रिय स्वीकार करो
हे चांद चकोरी चंद मुखी
चंहकी जिज्ञासा शांत करो
आने की आहट सुनकर
 राहें तकना स्वीकार किया
तेरे अधरों की लरजिस पर
तन मन सबकुछ कुर्बान किया
यह दिवस सुहाना पाकर
मैं अंतरमन से झनकार उठा
तुम यूं गुलाब सी खिली हुई
 मैं भंवरे सा गुंजार उठा
पर तुम तो मेरी पूजा हो 
श्रद्धा भक्ति स्वीकार करो

इस प्रणय दिवस पर 
प्रणय निवेदन प्राण प्रिया स्वीकार करो
हे चांद चकोरी चंद्र मुखी 
चंहकी जिज्ञासा शान्त करो
रांझों का प्रेम गुलामी में 
लुटकर पिटकर इतिहास बना
संघर्ष हमेशा जीवन में 
चाहत के नित विपरीत बना
इस आस भरी बलिबेदी पर 
क्या घुट-घुट कर जीना होगा
हमराह अगर दोराह हुए 
तो तड़प तड़प मरना होगा
हे राज हंसिनी इस दिल में 
तुमको मदमस्त मचलना है
मेरी दुनिया के जन्नत में 
तुमको अब दस्तक देना है
अब तक की मेरी तपस्या में
 राही बनना स्वीकार करो
दो जिस्म भले हम रहें अगर 
पर एक जान बनें स्वीकार करो
इस प्रणय दिवस पर 
प्रणय निवेदन प्राण प्रिया स्वीकार करो
हे चांद चकोरी चंद मुखी
चंहकी जिज्ञासा शांत करो 

Monday, February 4, 2019

मैं आज भी वैसा ही हूं

मैं आज भी वैसा ही हूं,
थोड़ा अड़ियल, थोड़ा नादान...
थोड़ा गुमसुन, थोड़ा शैतान...
न टूटा हूं, न बदला हूं,
हां मैं आज भी वैसा ही हूं...

बदला है जमाना, बदला मौसम है,
न बदला है, तो मेरा अफसाना...
कई बदले है हाथों के लकीरें,
तो कहीं बदली है, मेरी तस्वीरें...
इनसब से अनजान, 
मैं आज भी वैसा ही हूं...

खुले अहसासों से लिपटा,
किताबों में कहीं जकड़ा... 
अपने आप में सिमटा हुआ,
हां मैं आज भी वैसा ही हूं...

मेरे सपने मुझे खरेच जाती है,
दर्द का हल्का झोका मुझे नोच जाती है...
अनमना सा आज भी जीता हूं,
हां मैं आज भी वैसा ही हूं...

पलटने की अदाएं आज भी नहीं सीख पाया हूं, 
इस जमाने से किसी की चलाकी आज भी...
नहीं समझ पाया हूं, दरख्तों सा खामोश खड़ा, 
परिन्दों सा झांकता, अपान उलझा जीवन खोजता हूं...
हां मैं आज भी वैसा ही हूं...

शायद तब तक ऐसा रहूं,
जब तक अपने को न जान लूं...
अपना मंजिल न पहचान लूं,
उलसे बाद शायद थोड़ा बदल जाऊं...
पर मुझे फिर यकीन है तुम मुझे पहचानोंगी,
मैं तब भी कहीं न कहीं वैसा ही रहूं...

जिन्दगी की किताब


रात खोल बैठे जिन्दगी के किताब
उसने दबी अवाज में पुछ डाले कई सवाल
कितने दिन बाद तुमने मुझे खोला है यार
क्या तुमको है इसका जरा भी हिसाब



किताब का न था मेरे पास कोई जवाब
उसने कहा देखों जरा मुझे
कैसी थी मैं, अब क्या है मेरा हाल
मैं असहाय सा उसे देखता रहा 
अपने आप को कोसता रहा 



अपने पर दोष मड़ता रहा 

किताब का बुहत बुरा था हाल
जिससे निकल चुके थे कई पन्नों के हिसाब 
वो पन्ने जिसे पाकर हम हो जाते थे निहाल


वो पन्ने अब नहीं थे उसके पास 



शायद जिन्दगी के बहाव में

वह पन्ने कहीं बह गए 
हम बस जिन्दगी का जिल्द संवारने में व्यस्थ रहे
और जिन्दगी के पन्ने बिखर गए...

कुछ बाते ऐसी भी

कुछ बाते ऐसी भी हैं,
जिसे मुझे बताना हैं,
कुछ दोस्त ऐसे भी हैं,
जो रास्ते में छुट जाना हैं,
कुछ अपने बन रूठे हैं...

मेरी खामोशियां किसी दिन,
उन्हें भी लेगी आगोश में,
बेखबर बैठा हूं मैं यू ही आवेश में,
मतलबी इस दुनिया में, 
सब मतलबी मिले हैं,
हर वह शक्स जिसने जख़्म दिये हैं...

कहे क्या कुछ यूं ही हम टूटे हैं,
ख़्वाहिशों के हशिये पर, 
अपनों से ही लुटे है,
मेरे अपने, मेरे सपने, 
घूमते दिखते है मुझे...

सबकी जुबां अब यही कहती हैं,
मैं अब वह नहीं जो था कभी,
सबकी बातें सुन कर जो हंसता था,
वह अब खुद पर हंसता हैं,
बंधनों की डोर पर वह कुछ यू ही खड़ा हैं,
क्षण-प्रतिक्षण रिसते रिश्ते को देखने पर अड़ा हैं...